part -1
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ईर्ष्या द्वेष और मैजिकल माइंडसेट आदिवासी समाज और खासकर संताल समाज में इतना ज्यादा है कि भले सच्चाई दब जाए ? समाज मिट जाए ? मगर हम किसी को उसकी मेहनत, मेरिट और सफलता का श्रेय नहीं देंगे ? क्यों देंगे ? क्योंकि श्रेय देने से उसका नाम होगा, समाज को एक नेतृत्व मिल सकता है। अतः भाड़ में जाए नेतृत्व और समाज। अंततः तथाकथित आदिवासी बुद्धिजीवी और ईर्ष्या द्वेष से ग्रसित कुछ आदिवासी अगुआ उसका टांग खींचने में लग जाते हैं। बदनाम करने की नीयत से उसके खिलाफ झूठे प्रचार और तर्कहीन, निराधार, बेबुनियाद आरोप फैला कर जनता को बड़े दायरे में भ्रमित कर आदिवासी समाज का भट्टा बैठा देते हैं। बहुत दुख और दर्द के साथ मैं कहना चाहती हूं कि पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ईर्ष्या द्वेष से ग्रसित इन कोरोना वायरसों के शिकार होते रहे हैं। और मेरी नजर में ये कोरोना वायरस आदिवासी समाज को अपूरणीय क्षति पहुंचा रहे हैं। नीचे कुछ तथ्यों और घटनाओं के साथ मैं अपनी वक्तव्य को पुष्ट करने की कोशिश करूंगी।
इसके उल्टा ईर्ष्या द्वेष से ग्रसित ये कोरोना वायरस राजनीतिक- सामाजिक नेतृत्व के नाम पर एक खास परिवार को अंधभक्ति की पराकाष्ठा के साथ सहयोग कर आदिवासी समाज के साथ भयंकर भीतरीघात कर रहे हैं। जिस परिवार ने झारखंड को तो बेचा ही, संताली भाषा, सरना धर्म के लिए कभी कुछ नहीं किया। सीएनटी एसपीटी कानून को खुद तोड़ा, PESA कानून, पांचवी अनुसूची आदि के लिए कभी नहीं सोचा। डोमिसाइल और आरक्षण को खुद बकवास और बेकार बोलकर पहले आग में पानी डाला । अब 1932 लागू करने का झूठा प्रपंच चला रहे हैं। क्या कांग्रेस और राजद के नेता बिहारी- बाहरी के खिलाफ कोई 1932 का कानून बनने देंगे ? नहीं । अतः 1932 एक झूठा सपना है। बृहद झारखंड क्षेत्र के आदिवासियों को घृणा की दृष्टि से देखते है । यह परिवार हडीया दारु चखना, रुपया पैसा आदि बांटकर तथा ईसाई और मुसलमानों का साथ लेकर गद्दी में काबिज तो हो जाता है। मगर आदिवासी समाज को हाड़ीया दारु चखना, फुटबॉल जर्सी आदि छोड़कर अब तक क्या दिया है ? यह अलग बात है BJP - RSS के डर से ईसाई और मुसलमान उक्त परिवार का साथ देने को मजबूर हैं। यह खास परिवार सत्ता के लिए राजनीति करता है, समाज के लिए नहीं। अन्यथा आदिवासी समाज में व्याप्त नशापन, अंधविश्वास, गरीबी, बेरोजगारी, विस्थापन-पलायन, धर्मांतरण, प्राचीन आदिवासी स्वशासन व्यवस्था में सुधार, गलत परंपराओं में सुधार आदि समस्याओं पर कोई कार्ययोजना के तहत आदिवासी समाज में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक जागरूकता का काम कर सकता था। आदिवासी समाज और खासकर संथाल समाज में यह परिवार लगभग चार दशकों से अंधों में काना राजा की तरह काबिज़ है। और इन कोरोना वायरसों के सहारे मैजिकल दुनिया में जीने वालों के नासमझी का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करता रहा है। आदिवासी समाज के हित में यह कहां तक जायज है ?
अतः सच और झूठ के बीच झूलते आदिवासी जनमानस को तथ्यों और तर्कों के साथ ईर्ष्या द्वेष छोड़कर पुनर्विचार करने की प्रार्थना करते हैं।
1. संताली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराना और झारखंड की राजभाषा बनाने की मांग करना --
(i) संताली भाषा भारत की ऑस्ट्रिक भाषा समूह की पहली और सबसे बड़ी आदिवासी भाषा है। जिसे राष्ट्रीय मान्यता अर्थात आठवीं अनुसूची में 22 दिसंबर 2003 को स्थान प्राप्त हुआ है। मगर इसके पीछे चरणबद्ध आंदोलन हुए हैं। पहला चरण 30 जून 1980 को अखिल भारतीय झारखंड पार्टी के विशाल आदिवासी दिल्ली रैली से प्रारंभ होता है। जब भारत के राष्ट्रपति को सालखन मुर्मू के नेतृत्व में संताली, मुंडा, हो, कुड़ुक आदिवासी भाषाओं और ओल चिकी लिपि की मान्यता का मांग पत्र सौंपा गया। दूसरा चरण 16 अगस्त 1992 को झाड़ग्राम, पश्चिम बंगाल में संताली भाषा मोर्चा (SBM) के गठन से शुरू होता है। भारत सरकार ने 1992 में नेपाली, कोंकणी और मणिपुरी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का घोषणा कर दिया था। अतः सालखन मुर्मू के नेतृत्व में SBM ने बिहार बंगाल उड़ीसा और असम राज्यपालों को धरना प्रदर्शन के साथ संताली भाषा को भी शामिल करने हेतु क्रमशः 2-3.11.1992, 10.11.92, 16-17.11.92, 12.12.92 को ज्ञापन पत्र प्रदान किया। मगर संताली भाषा की उपेक्षा की गई। तीसरा निर्णायक चरण 1998 में प्रारंभ हुआ जब 1998 में सालखन मुर्मू 12वीं लोकसभा के सांसद बने। सालखन मुर्मू के नेतृत्व में SBM ने राष्ट्रीय स्तर पर 12.4.1998 को गोलमुरी, जमशेदपुर में संताली भाषा प्रेमियों की एक विशेष बैठक का आयोजन किया। केंद्रीय मंत्री कवीन्द्र पुरकायस्थ की उपस्थिति में 5.7.1998 को प्रथम संताली भाषा महारैली जमशेदपुर में आयोजित हुआ। 16.6.98 से 5.7.98 तक संताली भाषा रथ विभिन्न प्रदेशों में चला कर जनता को आंदोलन के साथ जोड़ा गया। 16.6.1998 को पारसी सागड़ अर्थात भाषा रथ को भारत सरकार के मंत्री ओमाग अपांग ने गुरु गोमके रघुनाथ मुर्मू के मूर्ति स्थल, रायरंगपुर, ओडीशा से झंडा दिखाकर रवाना किया। SBM ने द्वितीय संताली भाषा महारैली का आयोजन 4.2.99 को कोलकाता के रानी रश्मोनी रोड में आयोजित किया था। 17.12.1999 को संताली भाषा मोर्चा (SBM) ने जंतर मंतर, नई दिल्ली में धरना प्रदर्शन कर सांसद सालखन मुर्मू के नेतृत्व में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को ज्ञापन पत्र प्रदान किया।
(ii) SBM द्वारा तृतीय भाषा महारैली का आयोजन रीगल मैदान, जमशेदपुर में 8.4.2000 को आयोजित हुआ। जिसमें सालखन मुर्मू को पारसी हुलगारिया (भाषा आंदोलनकारी) का उपाधि प्रदान किया गया और एक सौ अन्य सहयोगी संगठनों और व्यक्तियों को संताली भाषा आंदोलन में उनके योगदान के लिए मान मोहोर (मेडल) और सर्टिफिकेट प्रदान किया गया । झारखंड प्रदेश गठन के एक सप्ताह पूर्व 8.11.2000 को संताली राजभाषा महारैली का आयोजन मोराबादी मैदान रांची में किया गया। जिसमें सभी प्रदेशों से लगभग एक लाख संताल शामिल हुए। जिस महारैली को कुछ ईर्ष्यालु संताल बुद्धिजीवी, राजनीतिक स्टंट बताकर, इसको विफल करने के लिए समाचार तक छपवाये थे।
संताली भाषा की मान्यता आंदोलन को निर्णायक बनाने हेतु SBM ने तीन बार 25.9.2000, 8.12.2000 और 8.5.2001 को रेल रोको का आंदोलन भी किया। गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा, राजघाट दिल्ली और मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के संयुक्त तत्वाधान में प्रथम राष्ट्रीय आदिवासी भाषा सम्मेलन राजघाट नई दिल्ली में 23-24.3.2002 और द्वितीय सम्मेलन 5-7.9.2003 को आयोजित हुआ। जिसमें SBM के प्रतिनिधि और बोडो भाषा आंदोलनकारी शामिल हुए। SBM को 2002 में और सालखन मुर्मू को 2003 में संताली भाषा आंदोलन में नेतृत्व और योगदान देने के लिए "राष्ट्रीय लोक भाषा सम्मान" प्रदान किया गया। तीसरे चरण में संताली भाषा आंदोलन को तीव्रता और मंजिल तक ले जाने के लिए अनेक रैली मीटिंग जुलूस सेमिनार आदि का दौर चलता रहा।
(iii) संताली भाषा आंदोलन का अंतिम चरण या पटाक्षेप 2003 के मानसून सत्र में होता है। जब भारत सरकार ने 18 अगस्त 2003 को केवल बोडो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने का बिल प्रस्तुत कर दिया। तब 21 अगस्त 2003 को लोकसभा में सालखन मुर्मू ने संताली और हो, मुंडा, कुड़ुक की मांग भी रख दिया। उसके बाद SBM ने 8.11.2003 को भारत के संताल बहुल जिलों और 18.11.2003 को राज्यपालों के मार्फत राष्ट्रपति को संताली भाषा मान्यता के लिए ज्ञापन पत्र भेजा। 8 दिसंबर 2003 को जंतर मंतर नई दिल्ली से भव्य प्रदर्शन जुलूस करते हुए SBM और जेडीपी के नेता, कार्यकर्ता गाजा-बाजा, नगाड़ों के साथ सालखन मुर्मू के नेतृत्व में पार्लियामेंट की तरफ आगे बढ़े। मगर उनको संसद के आगे रोका गया। उल्लेखनीय है कि तीनों युवक जो संताली भाषा की मान्यता के लिए आत्मदाह की घोषणा कर चुके थे - कान्हू राम टुडू ,सुबोध मार्डी, सुनील हेंब्रोम को गिरफ्तार कर लिया गया। 8.12.2003 को पार्लियामेंट स्ट्रीट में धरना प्रदर्शन के बाद शाम 3:30 बजे कांग्रेस के सभापति सोनिया गांधी के साथ उनके निवास स्थल दस जनपथ दिल्ली में SBMऔर JDP के करीब 2000 प्रतिनिधि सालखन मुर्मू के नेतृत्व में उनसे मिले। जिसमें असम के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। 9.12.2003 को एसबीएम का प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम से भी मुलाकात किया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से सांसद प्रियरंजन दास मुंशी ने 15 दिसंबर 2003 को पत्र लिखकर सालखन मुर्मू को अवगत किया कि कांग्रेस पार्टी संताली भाषा को बोडो के साथ शामिल कराने के लिए बिल में संशोधन प्रस्ताव लाएंगे। अंततः 22 दिसंबर 2003 को कठिन सफर मंजिल तक पहुंच ही गया। 8 दिसंबर 2003 के दिल्ली कार्यक्रम को सप्लीभूत करने के लिए टाटा से दिल्ली जाने के लिए विशेष रेल की व्यवस्था की गई थी।
(iv) अतएव सालखन मुर्मू यदि संसद के भीतर और बाहर पूरी निष्ठा और दृढ़ता के साथ नेतृत्व नहीं देते, अपनी राजनीतिक -कूटनीतिक ज्ञान से बीजेपी और कांग्रेस को नहीं पटाते, अपना बहुमूल्य समय नहीं देते, (जो अधिकांश MP पेट्रोल पंप लगाने, प्रॉपर्टी खरीदने, पैसा कमाने आदि में लगाते हैं), उल्टा अपना लाखों रुपया खर्च नहीं करते, सैकड़ों संताली संगठनों को नहीं जोड़ते, लगभग 11 बार संसद में वक्तव्य नहीं रखते, पूरे देश का दौरा नहीं करते, नॉन पॉलिटिकल मानसिकता वाले संताली भाषा प्रेमियों को नहीं जोड़ते, विरोधियों के विरोध को कमजोर नहीं करते, कांग्रेस नेता सांसद प्रियरंजन दास मुंशी का सहयोग नहीं लेते तो शायद संताली भाषा मान्यता का सपना एक सपना ही रह जाता । आखिर सालखन मुर्मू को पारसी जितकरिया (भाषा विजेता) का उपाधि दिया गया और गुरु गोमके रघुनाथ मुर्मू ने जो सपना 1925 में ऑल चिकि का आविष्कार कर देखा था, उसको सालखन मुर्मू ने 75 वर्षों बाद वर्ष 2003 में पूरा किया। क्या इस ऐतिहासिक महान उपलब्धि के लिए सालखन मुर्मू के नेतृत्व को श्रेय देना गलत होगा ?
सुमित्रा मुर्मू
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